Jcert Class 6 भाषा मंजरी Chapter 11 शल्य-चिकित्सा के प्रवर्तक : सुश्रुत Solutions

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By: Team, Chandan Kr Verma

अध्याय - 11 : शल्य-चिकित्सा के प्रवर्तक : सुश्रुत

1. लेखक ने वाराणसी का क्या महत्व बताया है?
उ. लेखक ने वाराणसी को भारत का ऐसा प्राचीन नगरी कहा है जहाँ लगभग 2500 वर्ष पहले गंगा के तट के समीप एक ऐसी पाठशाला थी जहाँ आयुर्वेद की शिक्षा दी जाती थी। दूर-दूर से विद्यार्थी यहाँ आते और शल्य-चिकित्सा का ज्ञान प्राप्त करते थे।

2. 'सुश्रुत-सहिंता' क्या है? संक्षेप में परिचय दीजिए।
उ. आचार्य सुश्रुत द्वारा रचित 'सुश्रुत संहिता’ चिकित्सा ग्रंथ आयुर्वेद का एक महान ग्रंथ है, जिससे हमें शल्य-चिकित्सा की विशद जानकारी मिलती है। इसमें कुल मिलाकर 120 अध्याय हैं और इन्हें छह भागों में बाँटा गया है- सूत्रस्थान, निदानस्थान, शरीरस्थान, चिकित्सास्थान, कल्पस्थान और उत्तरस्थान । 'सुश्रुत संहिता' में शल्य-चिकित्सा की विधियों और उसमें काम आनेवाले यंत्रों तथा शास्त्रों के बारे में व्यापक जानकारी दी गई है।

3. सुश्रुत के आयुर्वेद-पाठशाला में विद्यार्थी दूर-दूर से शल्य चिकित्सा का ज्ञान प्राप्त करने आते हैं। किस प्रकार से विद्यार्थी को यहाँ प्रवेश मिलता है?
उ. सुश्रुत के आयुर्वेद पाठशाला में विद्यार्थी दूर-दूर से शल्य-चिकित्सा का ज्ञान प्राप्त करने आते थे। यहाँ केवल वैसे विद्यार्थियों को ही प्रवेश मिलता था, जिनका मन मानव-सेवा और प्रेम से ओतप्रोत होता था, जिनमें साधना और कठोर परिश्रम करने की लगन होती थी।

4. सुश्रुत द्वारा टाँके लगाने के लिए किस-किस प्रकार के धागे प्रयुक्त किए जाते थे?
उ. सुश्रुत द्वारा टाँके लगाने के लिए रेशम की डोर, सूत, चमड़े से तैयार किए गए धागे तथा घोड़ों के बालों से बने हुए धागों का प्रयोग किया जाता था।

5. सुश्रुत फटी हुई आँतों का इलाज किस प्रकार करते थे? उनकी तकनीक को विलक्षण क्यों कहा गया है?
उ. सुश्रुत दुर्घटनाओं में अथवा अस्त्र-शस्त्र के वार से फट गई आँतों के दो किनारों को एक-दूसरों से जोड़ने के लिए एक किस्म के चींटों का उपयोग किया करते थे। फटी हुई आँत के दोनों किनारों को मिलाकर उसपर चींटे छोड़ दिए जाते थे। वे चींटे अपने दाँतों से उस पर चिपक जाते, तब चींटों का शेष भाग काटकर अलग की दिया जाता और उदर के बाहरी उत्तकों और त्वचा पर टाँके कस दिए जाते। उनकी इस तकनीक को विलक्षण इसलिए कहा गया है, क्योंकि विश्वभर में सबसे पहले विकसित इस तकनीक में आँत का घाव भरने के बाद शरीर को दोबारा खोलने की आवश्यकता नहीं थी।

6. शल्यक्रिया का प्रारंभिक प्रशिक्षण देने के लिए किन-किन वस्तुओं का उपयोग किया जाता था?
उ. शल्य-चिकित्सा का प्रारम्भिक प्रशिक्षण देने के लिए कंद-मूल, फल-फूल, पेड़ पौधों की लताओं, पानी से भरी मशकों, चिकनी मिट्टी के ढाँचों, मलमल से बने मानव-पुतलों आदि वस्तुओं का उपयोग किया जाता था।

7. सुश्रुत महान शल्य चिकित्सक तो थे ही, श्रेष्ठ गुरु भी थे। कैसे?
उ. सुश्रुत महान शल्य चिकित्सक तो थे ही, श्रेष्ठ गुरु भी थे। अपने शिष्यों को आचार्य सुश्रुत कई प्रकार के प्रशिक्षण से अवगत कराते थे। प्रारंभिक प्रशिक्षण में प्रकृति की वस्तुओं पर अभ्यास कराते। चीरा कैसे लगाना है, उसे कितना लम्बा, कितना गहरा रखना है, घाव की गहराई कैसे पहचानें, उसे भरने के लिए क्या तकनीक अपनाएँ आदि। प्रारंभिक प्रशिक्षण में उत्तीर्ण होने पर ही शिष्य के प्रशिक्षण का दूसरा चरण शुरू होता। अब शिष्य को किसी कुशल शल्य-चिकित्सक की देखरेख में रख दिया जाता था। वह तरह-तरह की शल्य कियाएँ देखता और उनसे सीखता जाता। फिर कुछ समय बाद जब वह पूरी तरह परिपक्व को जाता, तब उसे गुरु की देखरेख में स्वयं ऑपरेशन करने की अनुमति दी जाती थी।

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